क्या में इन्सान हूँ
मिट्टी उडा रहा हूँ
इस विचार में की हवा बह जाए
भाग रहा हूँ
इस तरह की जीवन कट जाए
पानी का बुलबुला अभी अभी टुटा है
मैंने उसे धकेल दिया लहरों में
जैसे
एक नई लहर बन जाए
में देखता हूँ हर तरफ़ मग्न सा
क्या में इन्सान हूँ

विषद के नृत्य में
प्रदीप्त सा उजाला है
झांक रहा है कौन मुझे
में देख रहा हूँ अधीर सा
उमंग का स्फुरण हुआ
और इस संक्रमण काल में
मन हो चला नग्न सा
क्या में इन्सान हूँ

सोच का प्रतिफल चाहता हूँ
श्रम का परिश्रम कौन करे
बस हर पल हो आनंदित उत्सव
ऐसे गुजरे मेरा जीवन ,
दुविधा में घिरा हूँ
भूत, भविष्य और वर्तमान
दिलासा देकर खुद को कहता हूँ
में अकेला नही, हर तरफ़ है ऐसा इन्सान ,
शोरगुल चारों तरफ़
व्यथीत भीड़ में खुद को
देखता हूँ एकाकी समग्र सा
क्या में इन्सान हूँ
3 Responses
  1. Good start for you friend,yr poems raises old questions in new concept.
    dr.bhoopendra


  2. A man Says:

    thank you Dr Bhupendra Kumar. Acha laga ki aap anandit hue. Bus bado ka aashirvad chahye. Mei apne prayas karta rahunga.



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